इश्क ने 'गालिब' निकम्मा कर दिया।

इश्क ने 'गालिब' निकम्मा कर दिया।

वरना हम भी आदमी थे काम के।।

उभरा हुआ नकाब में है उनके एक तार।

डरता हू मैं कि ये न किसी की निगाह हो।।

आह को चाहिये एक उम्र असर होने तक।

कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।।

हर कदम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायां मुझसे।

मेरी रफ़्तार से भागे है बयाबां मुझसे।।

नक्शे-फ़रियादी है किसकी शोखि-ए-तहरीर का।

कागज़ी है पैरहन हर पैकरे-तस्वीर का।।

'गालिब' बुरा ना मान जो वाईज़ बुरा कहे।

ऐसा भी कोई है सब अच्छा कहे जिसे।।

उनके देखे से आ जाती है मुँह पर रौनक।

वो समझते है बीमार का हाल अच्छा है।।

हम है मुश्ताक और वो बेज़ार।

या इलाही, ये माजरा क्या है।।

जब की तुझ बिन नही कोई मौजूद।

फ़िर ये हंगामा-ऎ-खुदा क्या है।।

ज़िक्र उस परीवश का और फ़िर बयाँ अपना।

बन गया रकीब आखिर,जो था राज़दाँ अपना।।

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